10 (Dus) Mahavidya Ke Baare Mai Vistar Se Jaankari In Hindi: मनुष्य जन्म से लेकर मृत्यु तक अनेक तरह की उलझनों में उलझा रहता है, कभी परिवार की दिक्कतें, तो कभी गृहस्थ का सुख, कभी मान सम्मान और कभी धनसम्पदा, न जाने कितनी अभिलाषाएं हैं, न जाने कितनी आकांक्षाएं हैं जो जीवन भर आदमी का पीछा करती हैं। आदमी की सारी आकांक्षाएं वो जीवन की हों या जीवन के बाद मोक्ष की, अगर किसी तरह पूरी हो सकती हैं तो उसका एक मात्र रास्ता है दस महाविद्याएं। क्या है ये दस महाविद्या (Das Mahavidya), क्या आप इनके बारे में जानते हैं। चलिए खुलासा डॉट इन में आपको इन दस महाविद्याओं के रहस्य (Read 10 Das mahavidya rahasya in English) के बारे में विस्तार से बताते हैं। प्रकृति की सभी शक्तियों में सारे ब्रह्मांड के मूल में ये दस महाविद्या ही हैं। ये दस महाविद्या है जो प्रकृति के कण कण में समाहित हैं और इनकी साधना से मनुष्य इहलोक ही नहीं परलोक भी सुधार सकता है। दस का सबसे ज्यादा महत्व है। संसार में दस दिशाएं स्पष्ट हैं ही, इसी तरह 1 से 10 तक के बिना अंकों की गणना संभव नहीं है।
ये दसों महाविद्याएं आदि शक्ति माता पार्वती की ही रूप मानी जाती हैं। दस महाविद्या ((Das Mahavidya)) विभिन्न दिशाओं की अधिष्ठातृ शक्तियां हैं। भगवती काली और तारा देवी– उत्तर दिशा की, श्री विद्या (षोडशी)– ईशान दिशा की, देवी भुवनेश्वरी, पश्चिम दिशा की, श्री त्रिपुर भैरवी, दक्षिण दिशा की, माता छिन्नमस्ता, पूर्व दिशा की, भगवती धूमावती पूर्व दिशा की, माता बगला (बगलामुखी), दक्षिण दिशा की, भगवती मातंगी वायव्य दिशा की तथा माता श्री कमला र्नैत्य दिशा की अधिष्ठातृ है।
कहीं-कहीं 24 विद्याओं का वर्णन भी आता है। परंतु मूलतः दस महाविद्या (Das Mahavidya) ही प्रचलन में है। इनके दो कुल हैं। इनकी साधना 2 कुलों के रूप में की जाती है। श्री कुल (shree kul) और काली कुल (Kali kul)। इन दोनों में नौ- नौ देवियों का वर्णन है। इस प्रकार ये 18 हो जाती है। कुछ ऋषियों ने इन्हें तीन रूपों में माना है। उग्र, सौम्य और सौम्य-उग्र। उग्र में काली, छिन्नमस्ता, धूमावती और बगलामुखी है। सौम्य में त्रिपुरसुंदरी, भुवनेश्वरी, मातंगी और महालक्ष्मी (कमला) है।
तारा तथा भैरवी को उग्र तथा सौम्य दोनों माना गया हैं देवी के वैसे तो अनंत रूप है पर इनमें भी तारा, काली और षोडशी के रूपों की पूजा, भेद रूप में प्रसिद्ध हैं। भगवती के इस संसार में आने के और रूप धारण करने के कारणों की चर्चा मुख्यतः जगत कल्याण, साधक के कार्य, उपासना की सफलता तथा दानवों का नाश करने के लिए हुई। सर्वरूपमयी देवी सर्वभ् देवीमयम् जगत। अतोऽहम् विश्वरूपा त्वाम् नमामि परमेश्वरी।। अर्थात् ये सारा संसार शक्ति रूप ही है। इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए।
पौराणिक कथा (Pauranik Katha)
पुराणों में वर्णित कथा के अनुसार एक बार महादेव(Mahadev) से संवाद के दौरान माता गौरी अत्यंत क्रोधित हो गईं। जब क्रोध से माता का शरीर काला पडऩे लगा तब विवाद टालने के उद्देश्य से महदेव वहां से उठकर जाने लगे तो सामने दिव्य रूप को देखा। फिर जब दूसरी दिशा की ओर बढ़े तो अन्य रूप नजर आया। बारी-बारी से दसों दिशाओं में अलग-अलग दिव्य दैवीय रूप देखकर स्तंभित हो गए। तभी सहसा उन्हें पार्वती का स्मरण आया तो लगा कि कहीं यह उन्हीं की माया तो नहीं।
उन्होंने माता से इसका रहस्य पूछा तो उन्होंने बताया कि आपके समक्ष कृष्ण वर्ण में जो स्थित हैं, वह सिद्धिदात्री काली हैं। ऊपर नील वर्णा सिद्धिविद्या तारा, पश्चिम में कटे सिर को उठाए मोक्ष देने वाली श्याम वर्णा छिन्नमस्ता, बायीं तरफ भोगदात्री भुवनेश्वरी, पीछे ब्रह्मास्त्र एवं स्तंभन विद्या के साथ शत्रु का मर्दन करने वाली बगला, अग्निकोण में विधवा रूपिणी स्तंभवन विद्या वाली धूमावती, नेऋत्य कोण में सिद्धिविद्या एवं भोगदात्री दायिनी भुवनेश्वरी, वायव्य कोण में मोहिनीविद्या वाली मातंगी, ईशान कोण में सिद्धिविद्या एवं मोक्षदात्री षोडषी और सामने सिद्धिविद्या और मंगलदात्री भैरवी रूपा मैं स्वयं उपस्थित हूं।
उन्होंने कहा कि इन सभी की पूजा-अर्चना करने में चतुवर्ग अर्थात- धर्म, भोग, मोक्ष और अर्थ की प्राप्ति होती है। इन्हीं की कृपा से षटकर्णों की सिद्धि तथौ अभिष्टि की प्राप्ति होती है। शिवजी के निवेदन करने पर सभी देवियां काली में समाकर एक हो गईं। जानिए कौन कौन सी है दस महाविद्याएं (Das Mahavidya) ।
महाकाली (Mahakali)

माँ के दस रूपों में से काली (Mahakali) माँ का शक्तिपीठ (Shakti peeth) कोलकाता (Kolkata) के कालीघाट (Kalighat) पर स्थित है तथा मध्यप्रदेश (Madhya pradesh) के उज्जैन (Ujjain) में भैरवगढ़ में गढ़कालिका मंदिर (Gadkalika temple) को भी काली माँ (Maa Kali) के शक्तिपीठ में शामिल किया गया है ।
महाकाली (Mahakali) का जाग्रत मंदिर जो चमत्कारिक रूप से मनोकामना पूर्ण करता है गुजरात में पावागढ़ की पहाड़ी पर स्थित है। हकीक की माला से नौ माला ‘क्रीं ह्नीं ह्नुं दक्षिणे कालिके स्वाहा:।’ मन्त्र का जाप करने से आपके सारे कष्ट माँ अवश्य हर लेंगी । भगवती काली को सभी विद्याओं की आदि मूल कहा गया है। इनकी साधना का प्रचलित मंत्र हैं। ऊँ क्रां क्रीं क्रौं दक्षिणे कालिके नमः। इस मंत्र को लोम-विलोम रूप में भी संपुटित करके किया जा सकता है। इनकी उपासना से सभी प्रकार की सुरक्षा प्राप्ति और शत्रु का नाश होता है।
Maa Kali Mantra (काली माँ सर्व सिद्धि प्रभावशाली मंत्र)
ओम ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चै: ||
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क्रीं क्रीं क्रीं ह्रीं ह्रीं हूं हूं क्रीं क्रीं ह्रीं ह्रीं हूं हूं स्वाहा |
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नमः ऐं क्रीं क्रीं कालिकायै स्वाहा ||
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ऐं नमः क्रीं क्रीं कालिकायै स्वाहा ||
मां तारा (Maa tara)

माँ का दूसरा रूप तांत्रिकों (Tantrik) की प्रमुख देवी तारा (Devi tara) का है, जिनकी सबसे पहले महर्षि वशिष्ठ (Maharshi Vashisht) ने आराधना की थी। भगवती तारा (Bhagwati tara) के तीन स्वरूप तारा (Tara), एकजटा (Ekjata devi) और नील सरस्वती (Neel saraswati) हैं । पुराणिक कथाओ के अनुसार पश्चिम बंगाल के बीरभूम जिले (veer bhumi ) में देवी सती (Devi Sati) के नेत्र गिरे थे, इसलिए इस जगह को नयन तारा व तारापीठ (Tara Pheeth) भी कहा जाता है । जबकि एक कथानुसार राजा दक्ष की दूसरी पुत्री देवी तारा थीं। हिमाचल प्रदेश की राजधानी शिमला से लगभग 13 किमी की दूरी पर स्थित शोघी में तारा देवी (Tara Devi) का अन्य मंदिर है । हिन्दू धर्म की देवी ‘तारा’ का बौद्ध धर्म में भी काफी महत्व है । नीले कांच की माला से बारह माला प्रतिदिन ‘ऊँ ह्नीं स्त्रीं हुम फट’ मंत्र का जाप करने से माँ की कृपा अवश्य मिलती है । देवी अन्य आठ स्वरूपों में ‘अष्ट तारा’ समूह का निर्माण करती है तथा विख्यात हैं।
१. तारा
२. उग्र तारा
३. महोग्र तारा
४. वज्र तारा
५. नील तारा
६. सरस्वती
७. कामेश्वरी
८. भद्र काली-चामुंडा ।
देवी तारा मंत्र : Beej Tara Mantra :
ॐ ह्रीं स्त्रीं हुं फट
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देवी एक्जता मंत्र : Devi ekjata Mantra
ह्रीं त्री हुं फट
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नील सरस्वती मंत्र : Neel Saraswati Mantra in hindi
ह्रीं त्री हुं
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शत्रु नाशक मंत्र : Shatru Nashak Tara Mantra :
ऐं ह्रीं श्रीं क्लीं सौ: हुं उग्रतारे फट
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जादू टोना नाशक मंत्र : Jadu Tona Nashak Tara Mantra :
ॐ हुं ह्रीं क्लीं सौ: हुं फट
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सुरक्षा कवच का मंत्र : Surkasha Kavach Tara Mantra :
ॐ हुं ह्रीं हुं ह्रीं फट
मां त्रिपुर सुंदरी (Maa tripur sundari)

चार भुजा, तीन नेत्र वाली षोडशी माहेश्वरी शक्ति की विग्रह वाली देवी हैं, जिन्हें ललिता, राज राजेश्वरी और त्रिपुर सुंदरी (Maa Tripur Sundari) के नाम से भी जाना जाता है। षोडश कलाओं से परिपूर्ण होने के कारण इन्हें षोडशी (Shodashi) भी कहा जाता है। पुराणों के अनुसार त्रिपुरा में जहाँ माँ सती (Maa Sati) के धारण किए हुए वस्त्र गिरे थे, यह शक्तिपीठ (Shakti Peeth) वहां स्थित है । उदयपुर शहर से तीन किलोमीटर दूर इस शक्तिपीठ (Shakti Peeth) में सती के दक्षिण ‘पाद’ का निपात हुआ था, इस पीठ को ‘कूर्भपीठ’ के नाम से भी जाना जाता है | ‘ऐ ह्नीं श्रीं त्रिपुर सुंदरीयै नम:’ मंत्र का जाप करने से माँ को शीघ्र प्रसन्न किया जा सकता है ।
मूलतः यही भगवती ललिताम्बा हैं। संसार के विस्तार का समस्त कार्य इन्हीं में समाहित हैं। यही परा कही गई हैं। यही भगवती (Bhagwati) भक्त पर कृपा करते हुए जब प्रत्यक्ष आर्शीर्वाद देती हैं तो श्री विद्या त्रिपुरमहासुंदरी (Maa Tripur Sundari) का दर्शन होता है। इनकी उपासना गुरु-शिष्य परंपरा के बिना संभव नहीं हैं।
त्रिपुर सुंदरी साधना (Maa Tripur Sundari Sadhna)
माता महा त्रिपुरसुंदरी को अन्य नाम जैस- श्री विद्या, त्रिपुरा, श्री सुंदरी, राजराजेश्वरी, ललित, षोडशी, कामेश्वरी, मीनाक्षी।भैरव : कामेश्वर आदि से भी जाना जाता हैं । माता त्रिपुरी सुंदरी सभी प्रकार की कामनाओं को पूर्ण करने वाली उगते हुए सूर्य के समान हैं ।
।। साधना विधि ।।
श्री गणेशाय नमः कामेश्वर भैरवाय नमः
।। श्री गुरु ध्यान ।।
ऊँ श्री गुरुवे, ओमकार आदिनाथ ज्योति स्वरूप, उदयनाथ पार्वती धरती स्वरूप । सत्यनाथ ब्रहमाजी जल स्वरूप । सन्तोषनाथ विष्णुजी खडगखाण्डा तेज स्वरूप, अचल अचम्भेनाथ शेष वायु स्वरूप । गजबलि गजकंथडानाथ गणेषजी गज हसित स्वरूप । ज्ञानपारखी सिद्ध चौरंगीनाथ चन्द्रमा अठारह हजार वनस्पति स्वरूप, मायास्वरूपी रूपी दादा मत्स्येन्द्रनाथ माया मत्स्यस्वरूपी । घटे पिण्डे नवनिरन्तरे रक्षा करन्ते श्री शम्भुजति गुरु गोरक्षनाथ बाल स्वरूप, नवनाथ स्वरूप मंत्र सम्पूर्ण भया, अनन्त कोटि नाथजी गुरुजी को आदेष ! आदेष !!
।। आसन ।।
‘सुखपूर्वक स्थिरता से बहुत काल तक बैठने का नाम आसन है । आसन अनेकों प्रकार के होते है । इनमे से आत्मसंयम चाहने वाले पुरूष के लिए सिद्धासन, पद्मासन, और स्वास्तिकासन – ये तीन उपयोगी माने गये है । इनमे से कोई आसन हो, परंतु मेरूदण्ड, मस्तक और ग्रीवा को सीधा अवश्ये रखना चाहिये और दृष्टि नासिकाग्र पर अथवा भृकुटी में रखनी चाहिये । आंखे बंद कर बैठे है । जिस आसन पर सुखपूर्वक दीर्घकाल तक बैठ सके, वही उत्तम आसन है ।
।। आसन मंत्र ।।
सत नमो आदेश । गुरूजी को आदेश । ऊँ गुरूजी ।
ऊँ गुरूजी मन मारू मैदा करू, करू चकनाचूर । पांच महेश्वर आज्ञा करे तो बेठू आसन पूर ।
श्री नाथजी गुरूजी को आदेश ।
।। धूप लगाने का मन्त्र ।।
सत नमो आदेश । गुरूजी को आदेश । ऊँ गुरूजी । धूप कीजे, धूपीया कीजे वासना कीजे ।
जहां धूप तहां वास जहां वास तहां देव जहां देव तहां गुरूदेव जहां गुरूदेव तहां पूजा ।
अलख निरंजन ओर नही दूजा निरंजन धूप भया प्रकाशा । प्रात: धूप-संध्या धूप त्रिकाल धूप भया संजोग ।
गौ घृत गुग्गल वास, तृप्त हो श्री शम्भुजती गुरू गोरक्षनाथ ।
इतना धूप मन्त्र सम्पूर्ण भया नाथजी गुरू जी को आदेश ।
।। दीपक जलाने का मन्त्र ।।
सत नमो आदेश । गुरूजी को आदेश ।
ऊँ गुरूजी । जोत जोत महाजोत, सकल जोत जगाय, तूमको पूजे सकल संसार ज्योत माता ईश्वरी ।
तू मेरी धर्म की माता मैं तेरा धर्म का पूत ऊँ ज्योति पुरूषाय विद्येह महाज्योति पुरूषाय धीमहि तन्नो ज्योति निरंजन प्रचोदयात् ॥
अत: धूप प्रज्वलित करें ।
।। मां त्रिपुर सुंदरी ध्यान मंत्र ।।
बालार्कायुंत तेजसं त्रिनयना रक्ताम्ब रोल्लासिनों ।
नानालंक ति राजमानवपुशं बोलडुराट शेखराम् ।।
हस्तैरिक्षुधनु: सृणिं सुमशरं पाशं मुदा विभृती ।
श्रीचक्र स्थित सुंदरीं त्रिजगता माधारभूता स्मरेत् ।।
।। मां त्रिपुर सुंदरी आवाहन मंत्र ।।
ऊं त्रिपुर सुंदरी पार्वती देवी मम गृहे आगच्छ आवहयामि स्थापयामि ।
आवाहन मंत्र के बाद देवी को सुपारी में प्रतिष्ठित करें । इसे तिलक करें और धूप-दीप आदि पूजन सामग्रियों के साथ पंचोपचार विधि से पूजन पूर्ण करें अब कमल गट्टे की माला लेकर करीब 108 बार नीचे लिखे मंत्र का जप करें ।
।। जप मंत्र ।।
ऊं ह्रीं क ऐ ई ल ह्रीं ह स क ल ह्रीं स क ह ल ह्रीं ।
।। विसर्जन मंत्रं ।।
जप और पूजन के बाद में अपने हाथ में चावल, फूल लेकर देवी भगवती त्रिपुर सुंदरी को इस मंत्र का उच्चारण करते हुए माता का विसर्जन करना चाहिए ।
गच्छ गच्छ सुरश्रेष्ठे स्वस्थानं परमेश्वरि त्रिपुर सुंदरी ।
पूजाराधनकाले च पुनरागमनाय च ।।
मां भुवनेश्वरी (Maa bhuvenshwari)

भक्तों को अभय एवं सिद्धियां प्रदान करने वाली भुवनेश्वरी (Maa Bhuvenshwari) को आदिशक्ति और मूल प्रकृति का मूल कहे जाने वाली माँ भुवनेश्वरी को शताक्षी तथा शाकम्भरी के नाम से भी जाना जाता है । निसंतान जोड़े पुत्र प्राप्ती के लिए माँ के इस रूप की आराधना करते हैं। स्फटिक की माला से ग्यारह माला प्रतिदिन ‘ह्नीं भुवनेश्वरीयै ह्नीं नम:’ मंत्र का जाप करने से भुवनेश्वरी माता की कृपा बरसने लगती है। यह भगवान शिव की समस्त लीलाओं की मूल देवी हैं। यही सबका पोषण करती हैं। प्राणीमात्र को अभय प्रदान करती हैं। समस्त सिद्धियों की मूल देवी हैं। भुवनेश्वरी की आराधना से संतान, धन, विद्या, सदगति की प्राप्ति होती है।
माँ भुवनेश्वरी मंत्र | Maa Bhuvaneshwari Mantra
माता के मंत्रों का जाप साधक को माता का आशीर्वाद प्रदान करने में सहायक है. इनके बीज मंत्र को समस्त देवी देवताओं की आराधना में विशेष शक्ति दायक माना जाता हैं इनके मूल मंत्र “ऊं ऎं ह्रीं श्रीं नम:” , मंत्रः “हृं ऊं क्रीं” त्रयक्षरी मंत्र और “ऐं हृं श्रीं ऐं हृं” पंचाक्षरी मंत्र का जाप करने से समस्त सुखों एवं सिद्धियों की प्राप्ति होती है.
श्री भुवनेश्वरी पूजा-उपासना | Rituals to worship Shri Bhuvaneshwari
माँ भुवनेश्वरी की साधना के लिए कालरात्रि, ग्रहण, होली, दीपावली, महाशिवरात्रि, कृष्ण पक्ष की अष्टमी अथवा चतुर्दशी शुभ समय माना जाता है. लाल रंग के पुष्प , नैवेद्य ,चंदन, कुंकुम, रुद्राक्ष की माला, लाल रंग इत्यादि के वस्त्र को पूजा अर्चना में उपयोग किया जाना चाहिए. लाल वस्त्र बिछाकर चौकी पर माता का चित्र स्थापित करके पंचोपचार और षोडशोपचार द्वारा पूजन करना चाहिए.
मां छिन्नामस्ता (Maa Chhinamastika)

झारखंड की राजधानी रांची से लगभग 79 किलोमीटर की दूरी पर दामोदर नदी के किनारे मां छिन्नमस्तिके मंदिर है । सिर कटा हुआ, कबंध से बहती रक्त की तीन धाराएं, तीन नेत्रधारी माँ का ये रूप मदन और रति पर आसीन है। गले में हड्डियों की माला व कंधे पर यज्ञोपवीत धारण करने वाली माँ शांत भाव से इनकी उपासना करने वाले उपासक को शांत स्वरूप में तथा उग्र रूप में उपासना करने वाले को उग्र रूप में दर्शन देती हैं । पलास और बेलपत्रों से छिन्नमस्ता महाविद्या की सिद्धि करने से लेखन बुद्धि में ज्ञान बढ़ता है। रूद्राक्ष माला से दस माला प्रतिदिन ‘श्रीं ह्नीं ऎं वज्र वैरोचानियै ह्नीं फट स्वाहा’ मंत्र का जाप करने से देवी को प्रसन्न किया जा सकता है । इनकी उपासना वाम तथा दक्षिण दोनों मार्ग से होती हैं। ललितोपाख्यान ग्रंथ में महिषासुर नामक राक्षस के साथ त्रिपुर देवी द्वारा किये गये युद्ध का वर्णन है। छिन्नमस्ता सबसे अलग हैं। अपनी सहचरी जया तथा विजया की भूख को शांत करने के लिये अपना सिर काटकर उसमें से जो रक्त धारा निकली उससे अपनी तथा दोनों की क्षुधा को शांत किया। इसी का नाम छिन्नमस्ता है। ये शत्रुविजय, राज्य तथा मोक्ष देने वाली है। विशेषतः विशाल समूह का स्तंभन करने वाली हैं।
त्रिपुर भैरवी (Tripura bhairavi)

बंदीछोड़ माता के नाम से जाने जाने वाली त्रिपुर भैरवी की उपासना से सभी बंधन दूर हो जाते हैं। देवी की आराधना से जीवन में काम, सौभाग्य और शारीरिक सुख के साथ आरोग्य सिद्धि प्राप्त की जाती है। मनोवांछित वर या कन्या से विवाह हेतु भी माँ की उपासना की जाती है। माँ का भक्त कभी भी दुखी नहीं रहता है। मुंगे की माला से पंद्रह माला ”ह्नीं भैरवी क्लौं ह्नीं स्वाहा: का जाप करना चाहिए । त्रिपुर शब्द का अर्थ हैं, तीनों लोक (स्वर्ग, पृथ्वी तथा पाताल) और ‘भैरवी’ विनाश के सिद्धांत रूप में अवस्थित हैं। तीनों लोकों के अंतर्गत विध्वंस कि जो शक्ति हैं, वह भैरवी ही हैं। देवी, विनाश एवं विध्वंस से सम्बंधित भगवान शिव की शक्ति हैं, उनके विध्वंसक प्रवृति की देवी प्रतिनिधित्व करती हैं। विनाशक प्रकृति से युक्त देवी पूर्ण ज्ञानमयी भी हैं; विध्वंस काल उपस्थित होने पर अपने देवी अपने भयंकर तथा उग्र स्वरूप में भगवान शिव के साथ उपस्थित रहती हैं। देवी तामसी गुण सम्पन्न हैं; यह गुण मनुष्य के स्वभाव पर भी प्रतिपादित होता हैं, जैसे क्रोध, ईर्ष्या, स्वार्थ एवं मदिरा सेवन, धूम्रपान इत्यादि जैसे विनाशकारी गुण, जो मनुष्य को विनाश की ओर ले जाते हैं। देवी, इन्हीं विध्वंसक तत्वों तथा प्रवृति से सम्बंधित हैं, देवी काल-रात्रि या महा-काली के समान गुण वाली हैं। देवी का सम्बन्ध विनाश से होते हुए भी वे सज्जन जातकों के लिए नम्र तथा सौम्य हैं तथा दुष्ट प्रवृति, पापियों हेतु उग्र तथा विनाशकारी हैं। दुर्जनों को देवी की शक्ति ही विनाश की ओर अग्रसित करती हैं, जिससे उनका पूर्ण विनाश हो जाता हैं या बुद्धि विपरीत हो जाती हैं।
मां धूमावती (Maa dumavati)

माँ धूमावती का कोई स्वामी न होने के कारण इन्हें विधवा माता माना जाता है। इनकी साधना से आत्मबल में विकास होने के कारण जीवन में निडरता और निश्चंतता का भाव आ जाता है। ऋग्वेद में इन्हें ‘सुतरा’ नाम से पुकारा गया है अर्थात जो सुखपूर्वक तारने योग्य हो। धूमावती महाविद्या के लिए अतिआवश्यक है कि व्यक्ति सात्विकता और संयम और सत्यनिष्ठा के नियम का पालन करने वाला हो तथा लोभ-लालच से दूर, शराब और मांस तक को छूए नहीं। भगवती धूमावती बहुत ही उग्र हैं। भगवान शिव से भोजन मांगने पर देरी होने पर इन्होंने शिवजी को ही निगल लिया तथा उसी समय उनके शरीर से धुंआ निकला और महादेव माया से बाहर आ गये और कहा, तुमने अपने पति को खा लिया है तुम विधवा हो गई हो। अब तुम बिना श्रृंगार के रहो तथा तुम्हारा नाम धूमावती प्रसिद्ध होगा। इसी रूप में विश्व का कल्याण करोगी। दुर्गा शप्तशती में वर्णन हैं कि इन्होंने प्रतिज्ञा की थी जो मुझे युद्ध में जीत लेगा वही मेरा पति होगा। ऐसा कभी नहीं हुआ अतः वह कुमारी है, धन या पति रहित हैं। अथवा महादेव को निगल जाने के कारण विधवा है।
मां बगलामुखी (Maa Baglamukhi)

युद्ध में विजय व शत्रुओं के नाश के लिए माँ बगलामुखी की साधना की जाती है। बगला मुखी के देश में तीन ही स्थान है, जो दतिया(मध्यप्रदेश), कांगड़ा (हिमाचल) तथा नलखेड़ा जिला शाजापुर (मध्यप्रदेश) में हैं । महाभारत के युद्ध के पूर्व कृष्ण और अर्जुन ने माता बगलामुखी की पूजा की थी। बगलामुखी का मंत्र: हल्दी या पीले कांच की माला से आठ माला ‘ऊँ ह्नीं बगुलामुखी देव्यै ह्नीं ओम नम:’ या ‘ह्मीं बगलामुखी सर्व दुष्टानां वाचं मुखं पदं स्तम्भय जिह्वां कीलम बुद्धिं विनाशय ह्मीं ॐ स्वाहा।’ मंत्र के जाप से आपको सभी शत्रुओ से मिल जाएगी। माता बगलामुखी की साधना-उपासना शत्रु का अति शीघ्र नाश करने वाली है। एक प्रसंग के अनुसार सतयुग में संसार को नष्ट करने वाला तूफान आया। उस वातावरण को देख श्री विष्णुजी को चिंता हुई। उन्होंने सौराष्ट्र देश में हरिद्रा सरोवर के समीप तपस्या कर श्री महा त्रिुपर सुंदरी को प्रसन्न कर लियां उसी सरोवर से बगला के रूप में प्रकट होकर उस तूफान को शांत किया। यही वैष्णवी भी हैं। चतुर्दशी सोमवार की मध्यरात्रि में प्रकट हुई हैं। इनकी उपासना शत्रु शमन, विग्रह शांति तथा अन्य कार्य के लिये की जाती है।
भगवती मातंगी (Maa Matangi)

असुरों को मोहित करने वाली और साधकों को अभिष्ट फल देने वाली शक्ति का नाम मातंगी है। इनकी पूजा गृहस्थ जीवन को श्रेष्ठ बनाने के लिए की जाती हैं। चन्द्रमा को मस्तक पर धारण करने वाली माँ मातंगी श्याम वर्ण की हैं। मातंगी माता के मंत्र: का जाप स्फटिक की माला से बारह माला ‘ऊँ ह्नीं ऐ भगवती मतंगेश्वरी श्रीं स्वाहा:’ मंत्र से किया जाता है । भगवती मातंगी मातंग मुनि की कन्या के रूप में अवतरित हुई हैं। ये परिवार की प्रसन्नता तथा वाणी, वाक-सिद्धि देने वाली हैं। चारों पुरुषार्थ प्रदान करने वाली हैं। भगवान विष्णु ने भी भगवती मातंगी की उपासना से ही सुख, कान्ति तथा भाग्य-वृद्धि प्राप्त की है। ऐसा वर्णन है कि रति, प्राप्ति, मनोभवा, क्रिया अनंग कुसमा, अनंग मदना, मदनालसा, तथा शुद्धा इनकी अष्ट ऊर्जाओं के नाम हैं।
मां कमला रानी (Maa Kamla rani)

दरिद्रता, संकट, गृहकलह और अशांति से मुक्ति के लिए माँ कमला रानी की अर्चना की जाती है । समृद्धि, धन, नारी, पुत्रादि की प्राप्ति के लिए इनकी साधना की जाती है। जिस पर माँ अपनी दया दृष्टि डाल दे वो व्यक्ति साक्षात कुबेर के समान धनी और समान हो जाता है। माँ की उपासना के लिए कमलगट्टे की माला से रोजाना दस माला ‘हसौ: जगत प्रसुत्तयै स्वाहा:।’ मंत्र का जाप करे । माता कमला को लक्ष्मी भी कहते हैं। समुद्र मंथन के समय कमलात्मिका लक्ष्मी की उत्पत्ति हुई। इन्होंने श्री महात्रिपुर सुंदरी की आराधना की। श्री कमला के अनेक भेद हैं। ये संसार की सभी संपदा, श्री, धन-संपत्ति, वैभव को प्रदान करने वाली है। श्री लक्ष्मी को सर्वलोक महेश्वरी कहा है। देवी भागवत में इन्हें भुवनेश्वरी, इंद्र ने यज्ञ विद्या, महाविद्या तथा गुह्यविद्या कहा है। मुंडमाला तंत्र में श्री विष्णु के दशावतार की दस महाविद्याये हैं। अर्थात जब-जब श्री विष्णु अवतार लेते हैं तब-तब माता लक्ष्मी भी उन्हीं के अनुरूप अपना शरीर बना लेती हैं। तो सिद्धांत में कृष्ण के साथ काली, राम के साथ तारा, वराह के साथ भुवनेश्वरी, नृसिंह के साथ भैरवी, वामन के साथ धूमावती, परशुराम के साथ छिन्नमस्ता और मत्स्य के साथ कमला, कूर्म के साथ बगला, बुद्ध के साथ मातंगी, कल्कि के साथ षोडशी लक्ष्मी के ही विविध रूप हैं।
कौन है मां कैलादेवी, क्यों की जाती है इनकी पूजा
टांगीनाथ धाम जहां आज भी करते हैं परशुराम निवास
भारत के ऐसे मंदिर जहां जाने से घबराता है लोगों का दिल
अष्टधाम भुजा मंदिर जहां होती है खंडित मूर्तियों की पूजा