अभी कल ही एक डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म पर एक अच्छी सी मलयालम फ़िल्म ‘इडम’ देखने का मौक़ा मिला. सीमा बिस्वास की बड़ी भूमिका है. सीमा बिस्वास तो ख़ैर दमदार अभिनेत्री हैं और इस भूमिका को इन्होंने बड़ी शिद्दत से निभाया भी है. लेकिन ऐसा क्यों होता है कि किसी किसी फ़िल्म में कोई ख़ास किरदार अपनी छोटी सी भूमिका में ही असर छोड़ जाता है ? इसका सीधा जवाब यह हो सकता है कि भई, अभिनेता दमदार था.लेकिन क्या यह सिर्फ़ उस अभिनेता या अभिनेत्री की अभिनय क्षमता का कमाल है? शायद नहीं. अगर यही सच होता तो फिर वही अभिनेता दूसरी फ़िल्मों की दूसरी भूमिकाओं में अपना लोहा क्यों नहीं मनवा पाता.
सच यह है कि रोल चाहे छोटा हो या बड़ा, महत्वपूर्ण बात यह होती है कि उस रोल के लिए किसका चुनाव किया गया है. इसे इस तरह समझें. कुछ समय पहले बॉक्स ऑफ़िस पर सफल और आलोचकों से प्रशंसा बटोर चुकी फ़िल्म ‘बधाई हो’ में आयुषमान खुराना के पिता की भूमिका जिस गजराज राव ने की, वे सालों से मुंबई फ़िल्म इंडस्ट्री में संघर्ष कर रहे हैं. दर्जनों फ़िल्मों, सीरियलों, में छोटे छोटे रोल में दिख चुके हैं. विज्ञापन फ़िल्मों में भी दिख चुके हैं लेकिन इस फ़िल्म से पहले किसी ने उन्हें नोटिस ना किया. इस फ़िल्म के बाद आलम यह है कि उनके पास फ़िल्मों की लाइन लग गयी हैं.
तो ऐसा, इसलिए सम्भव हो पाया कि अधेड़ उम्र में बाप बनने की जो दुविधा, संकोच और ज़िम्मेदारी गजराज राव ने परदे पर पूरी शिद्दत से निभाई है, वह सब को पसंद आयी. अभिनय की तारीफ़ हुई. कई लोगों को लगा जैसे अगर यह भूमिका, इस आदमी ने ना की होती तो शायद मज़ा नहीं आता. ऐसे अनगिनत उदाहरण मिलेंगे जहाँ एक भूमिका से किसी अभिनेता की क़िस्मत बन गयी लेकिन उस भूमिका के लिए किसे चुना जाय और जिसे चुना जाय वह बिलकुल उपयुक्त हो, उसी रोल के लिए बना हो, यह कौन तय करेगा.
आजकल वेब सीरीज़ में ऐसे कई कमाल के ऐक्टर्ज़ आ रहे हैं जो पहले देखे नहीं गए थे. वेब सिरीज़ ने इनको नाम और काम दिया है. इनमें कई ऐसे हैं जिन्हें देख के लगता है कि यार, ये इससे पहले कहाँ थे. कुछ समय पहले एमज़ान प्राइम पर पंचायत नाम की एक वेब सिरीज़ आयी थी. इसमें दूल्हा बना हुआ एक लड़का सिर्फ़ दो सीन में दिखा लेकिन उसी दो सीन में उसने ऐसा कमाल किया कि उसके पास आज कई काम हैं.लेकिन यह सिर्फ़ अभिनेता की उपलब्धि नहीं है. यहाँ दो लोगों की सबसे बड़ी भूमिका होती है.सबसे पहले उस लेखक की जिसने उस किरदार की कल्पना की, उसे लिखा, काग़ज़ पर गढ़ा.दूसरी भूमिका होती है, उस आदमी की जिसने उक्त किरदार के लिए अभिनेता या अभिनेत्री का चुनाव किया. यानि कास्टिंग डायरेक्टर की.
आज के फ़िल्मी परिदृश्य में कस्टिंग डायरेक्टर बड़ा ही इम्पोर्टेंट आदमी है. उसके बिना किसी का काम चलता नहीं. चाहे वो आमिर खान हों या शाहरुख़ खान. लेकिन फ़िल्में देखने वालों के लिए वह एक अनजान सा, परदे के पीछे रहकर काम करने वाला आदमी है. उन्हें कम लोग जानते हैं. वैसे अब तस्वीर बदल रही है. हॉलीवुड के मशहूर डायरेक्टर स्टीवन स्पील्बर्ग ने सालों पहले कास्टिंग डायरेक्टर के बारे में कहा था कि “ वे ऐसे सपने बुनते हैं जिनके बारे में हम सपने में भी नहीं सोच सकते !”
कुछ साल पहले इन कास्टिंग डायरेक्टर के बारे में बहुत कम लोग जानते थे. लेकिन अब कई लोग इन्हें जानने लगे हैं. ख़ास कर तब से जब इनलोगों ने आज के कई लोकप्रिय बड़े स्टार्स को खोज कर उन्हें पहला मौक़ा दिलवाया. सीधे कहें तो इनके वजह से ही ऐसे लोग स्टार बन पाए. शानू शर्मा नाम की कास्टिंग डायरेक्टर रणवीर सिंह, परिणति चोपड़ा, अर्जुन कपूर, स्वरा भास्कर, भूमि पेडणेकर जैसों को लेकर आयी तो मुकेश छाबड़ा ने राजकुमार राव, सुशांत सिंह राजपूत, अमित साध जैसों को पहली फ़िल्म दिलवाई. अब तो मुकेश छाबड़ा ख़ुद अपनी फ़िल्म से फ़िल्म डायरेक्शन में क़दम रख रहे हैं. इसमें लीड रोल सुशांत सिंह राजपूत कर रहे हैं. इनके अलावा, आज बॉलीवुड में श्रुति महाजन, अतुल मोंगिया, नंदिनी ,जोगी मलँग, हनी त्रेहन, परिणति जैसे कई कस्टिंग डायरेक्टर सक्रिय हैं.
जब से बॉलीवुड में कास्टिंग काउच, मी टू जैसे शोर ने जोड़ पकड़ा, तब से इन कास्टिंग डायरेक्टर का काम और बढ़ा है. कोई भी बड़ा प्रोड्यूसर, डायरेक्टर किसी भी नए, स्ट्रगलर ऐक्टर से सीधे नहीं मिलना चाहता. वह चाहता है कि उसका पसंदीदा कस्टिंग डायरेक्टर अगर किसी की सिफ़ारिश कर रहा है तभी उससे मिलना चाहिए. वजह मोटे तौर पर यह होती है कि इस तरह से वह किसी ऐसे तैसे आरोपों से ख़ुद को बचा के चलना चाहता है. बहरहाल, कास्टिंग डायरेक्टर का धंधा कैसे चलता है, अब इसे थोड़ा समझ लें.
एक बड़ी फ़िल्म ‘दंगल’ का उदाहरण लेते हैं. आमिर खान की इस फ़िल्म में आमिर खान एक प्रोड्यूसर भी थे. उन्होंने मुकेश छाबड़ा को कास्टिंग डायरेक्टर के तौर पर चुना. अब मुकेश की ज़िम्मेदारी थी कि वह फ़िल्म की स्क्रिप्ट को पढ़ कर, समझ कर उन अभिनेताओं और अभिनेत्रियों का चुनाव करे जिनकी फ़िल्म में छोटी, बड़ी, महत्वपूर्ण, ग़ैर महत्वपूर्ण भूमिकाएँ होनी हैं. इस कोशिश में, छाबड़ा और उनकी टीम शहर शहर भटके, दर्जनों ऑडिशन लिए, कई लोगों को चुना, फिर उनमें से कुछ चुने और उन कुछ को आमिर खान और फ़िल्म के डायरेक्टर नितेश तिवारी के सामने पेश किया. अब कई बार ऐसा भी हुआ कि इतनी मिहनत, मशक़्क़त के बाद जिन्हें चुना गया, वो प्रोड्यूसर, डायरेक्टर को पसंद ही ना आए.ख़ैर, लम्बे खोज अभियान के बाद जायरा वसीम, फ़ातिमा सना शेख़, सान्या मल्होत्रा जैसी आमिर खान की बेटियों का चुनाव हुआ. ऐसे ही दर्जनों अन्य कलाकार चुने गए.
‘दंगल’ और आमिर खान प्रोडक्शन से मुकेश छाबड़ा के क्या आर्थिक अनुबंध थे, कहा नहीं जा सकता लेकिन आम तौर पर कस्टिंग डायरेक्टर, बड़ी फ़िल्म प्रोडक्शन कम्पनी से अपनी सेवा के बदले पैसे नहीं माँगा करते. या कहें, उन्हें पैसे मिला भी नहीं करते, ज़रूरी ख़र्चों की बात अलग है.. तो फिर ऐसा क्यों है? जबकि उन्होंने प्रोडक्शन के लिए कई नए कलाकारों का चुनाव किया होता है.
फ़िल्म इंडस्ट्री में चल रहे रिवाज के मुताबिक़, कस्टिंग डायरेक्टर की कमाई उन अभिनेता या अभिनेत्रियों से होती है जिन्हें उनके कहने पर फ़िल्म में काम मिल रहा होता है. ना केवल, कास्टिंग डायरेक्टर, इन नए अभिनेताओं को मिल रही क़ीमत में एक तय प्रतिशत का हक़दार होता है बल्कि उक्त फ़िल्म के बाद की कुछ फ़िल्मों से भी मिलने वाले पैसे में कास्टिंग डायरेक्टर का एक कमीशन होता है.
अपने एक जानने वाले कई फ़िल्मों के एडिटर रह चुके हैं. अब वे अपनी एक फ़िल्म से बतौर डायरेक्टर आ रहे हैं. उन्होंने एक बड़े कास्टिंग डायरेक्टर से बात की जो उनके लिए फ़िल्म की कास्टिंग करने के लिए तैयार हो गए. पूछने पर बताते हैं कि पहले यह होता था कि आमतौर पर आप लीड ऐक्टर तय कर लेते थे और फिर दूसरे रोल के लिए कस्टिंग डायरेक्टर के पास जाते थे. अब तो ये कास्टिंग डायरेक्टर आपको लीड ऐक्टर तक तय करने में भी मदद करते हैं. और अगर कास्टिंग डायरेक्टर में समझ है तो वह आपको आपकी स्क्रिप्ट और आपकी ज़रूरत के हिसाब से बिलकुल सटीक लोग लाकर आपके सामने खड़े कर देगा. तभी तो, कई कास्टिंग डायरेक्टर अब डायरेक्शन की ओर क़दम बढ़ा रहे हैं. यह देखना मनोरंजक होगा कि वे उधर भी अपना झंडा गाड़ पाते हैं या नहीं!