The Tashkent Files Movie Review in hindi : चॉकलेट जैसी सस्पेंस थ्रिलर से अपने करियर की शुरुआत करने वाले विवेक अग्निहोत्री की पहली भूल समझकर लोग इस फिल्म को भुला चुके थे। दो साल के अन्तराल के बाद वो एक फिल्म और लाते हैं दे दना दन गोल, जो कि उनकी पिछली फिल्म से भी बड़ी गलती सी लगती है। दोनों फिल्म में एक बात कॉमन थी और वो थी फिल्म का बीच बीच में उबाऊ होना। 2012 में हेट स्टोरी और 2014 में जिद जैसी इरोटिक थ्रिलर बनाने के बाद वो एक और उबाऊ फिल्म जुनूनियत (2016) लेकर आये थे। इन सबके बीच वो एक और फिल्म लेकर आये बुद्धा इन ट्रैफिक जैम। इतनी सारी उबाऊ फिल्म के बाद वो लेकर आये है द ताशकंद फाइल्स (The Tashkent Files )।
फिल्म की कहानी एक पॉलिटिकल पत्रकार रागिनी फुले, जो अब तक सिर्फ फेक न्यूज़ से चर्चाओं में रहती है, के स्कूप लाने के चैलेंज से शुरू होती है। स्कूप न लाने पर उसे नौकरी से हाथ धोना पड़ेगा। इसके बाद रागिनी के फ़ोन पर एक अननोन नंबर से कॉल आती है और वो उसे देता है एक सच्चा और चर्चित कर देने वाला स्कूप। स्कूप है पूर्व पीएम लाल बहादुर शास्त्री की मौत का रहस्य । और इसके बाद खेल शुरू होता है पूर्व पीएम की मौत स्वाभाविक थी या नहीं? इस बात का खेल। श्याम सुंदर त्रिपाठी और पीकेएआर नटराजन जैसे पॉलिटिकल नेता एक-दूसरे के धुर-विरोधी होने के बावजूद इन सवालों की सत्यता जानने के लिए एक कमिटी का गठन करते हैं, जिसमे रागिनी और श्याम सुंदर त्रिपाठी के अलावा इंदिरा जोसफ रॉय, इतिहासकार आयशा अली शाह, ओमकार कश्यप, गंगाराम झा और जस्टिन कुरियन अब्राहम जैसे लोगों को चुना जाता है।
द ताशकंद फाइल्स (The Tashkent Files ) फिल्म कहानी कई मोड़ों से होकर गुजरती है और अंत में कई सवाल के साथ खत्म हो जाती है और आपको फिल्म के अंत में साफ़ नज़र आने लगता है कि यह फिल्म निष्पक्ष न होकर एकतरफा नजरिया अपनाती है | शायद फिल्म के निर्देशक ने चुनावी मौसम का लाभ उठाने की कोशिश की है इसीलिए फिल्म भी आनन फानन में बनायीं हुयी लगती है। फिल्म देखते हुए आप ये भी पाएंगे कि निर्देशक पर एक पार्टी की सोच किस हद तक हावी है। फिल्म में न ही कोई ऐसा पुख्ता सबूत दिया गया है जिसके चलते इसे एक सार्थक फिल्म मान लिया जाए, साथ ही साथ फिल्म वहीँ आकर खत्म हो जाती है जहाँ से शुरू होती है।
द ताशकंद फाइल्स (The Tashkent Files ) फिल्म की एक कमजोर कड़ी एक यह है कि फिल्म निर्देशक की पुरानी फिल्मों की तरह धीमी गति से चलती है। फर्स्ट हाफ में कहानी खिंची हुई और बोझिल मालूम होती है और सेकंड हाफ में ड्रामा इतना ज्यादा हो जाता है कि निर्देशक लाल बहादुर शात्री की अस्वाभिवक मौत के मुद्दे को साबित करने के लिए बेकरार नजर आने लगते हैं। इसके अलावा फिल्म में अचानक से नायिका ताशकंद पहुँच जाती है, कैसे ? ये सवाल भी खलता है। एक कमेटी के दौरान आपको रोज उस कमेटी को भी अटेंड करना है फिर ऐसा कैसे संभव है ?
यदि अभिनय की बात की जाए तो मिथुन चक्रवर्ती, नसीरुद्दीन शाह, पल्लवी जोशी, पंकज त्रिपाठी, मंदिरा बेदी, राजेश शर्मा और श्वेता बसु प्रसाद अपने अपने किरदार को बखूबी जी गये हैं, हालाँकि नसीरुद्दीन शाह का किरदार बेहद कम ही नज़र आता है। फिल्म का बैकग्राउंड म्यूजिक कहीं कहीं पर सर दर्द पैदा करता है। फिल्म की सिनेमटॉग्राफी बढ़िया है। फिल्म से उस वक़्त विवाद जुड़ गया था जब फिल्म रिलीज की रोक को लेकर शास्त्री जी के पोते की और से निर्देशक को लीगल नोटिस प्राप्त हुआ था। नोटिस के मुताबिक लोकसभा चुनाव 2019 के दौरान फिल्म का रिलीज होना ठीक नहीं है।
आज कल कोल्ड ड्रिंक स्प्राइट के विज्ञापन में दो दोस्तों को एक बकवास सी मूवी को ढूंढते हुए दिखाया जा रहा है, ताकि वो सिनेमा घर में जाकर AC का लुफ्त उठा सके। यदि आप भी गर्मी से परेशां है और AC रूम की तलाश कर रहे हैं ताकि कुछ पल सकून के साथ बिताये जा सके तो यह फिल्म आपकी मंजिल बन सकती है अन्यथा यह एक उबाऊ और एकतरफ़ा बात करती फिल्म है।
Film Review: The Tashkent Files | Shweta Basu Prasad | Mithun Chakraborty | Naseeruddin Shah